देश-प्रदेश में सियासी हवा कोई भी हो, लहर चाहे जैसी भी जिसकी भी हो, लेकिन गोरखपुर जिला खासतौर पर गोरखपुर संसदीय क्षेत्र में गोरक्षपीठ की ही चलती है। गोरक्षपीठ का सियासत में ऐसा दबदबा है कि जिसे यहां से आशीर्वाद मिलता है, उसकी जीत नामांकन से पहले ही तय मान ली जाती है। 1989 से अब तक केवल 2018 के उपचुनाव में ही यह सीट भाजपा के हाथ से फिसली, मगर 2019 में फिर उसकी झोली में आ गई। अपवाद के रूप में 2018 के उपचुनाव को छोड़ दें तो 1989 से 2019 तक इस सीट पर भाजपा का ही कब्जा रहा है। 
यूं तो गोरखपुर संसदीय सीट पर पिछड़ा वर्ग के मतदाता निर्णायक होते हैं मगर असल में चुनाव उसी ओर जाता है जिधर गोरक्षपीठ की रुचि होती है। 1997 में योगी आदित्यनाथ के गोरक्षपीठ से जुड़ने के बाद पीठ का प्रभाव और बढ़ा है और दिन-ब-दिन इस पीठ ने गोरखपुर व आसपास के इलाकों में अपनी पकड़ और बढ़ा ली। यह वह दौर था जब योगी गोरक्षपीठाधीश्वर के उत्तराधिकारी घोषित हो चुके थे और सर्वसुलभ होने के नाते युवाओं की एक बड़ी संख्या उनसे जुड़ती गई। 2017 आते-आते वह यूपी में लोकप्रिय हो गए और नतीजे में यूपी की सत्ता की बागड़ोर उनके हाथ में आ गई।
पिछड़ा वर्ग निर्णायक
गोरखपुर संसदीय सीट पर सर्वाधिक मतदाता पिछड़ा वर्ग के हैं। यहां निषाद समुदाय की बहुल्यता है। इसके बाद सैंथवार और फिर यादव व दूसरी जातियां आती हैं। ब्राह्मणों और मुस्लिमों की भी काफी आबादी है। हालांकि, मुस्लिम निर्णायक भूमिका निभाने की जगह प्रतिद्वंद्वी की जमानत बचाने के ही काम आ पाते हैं। संसदीय सीट के गोरखपुर सदर, ग्रामीण, सहजनवां, कैंपियरगंज, पिपराइच विधानसभा क्षेत्र में यही पिछड़ा वर्ग निर्णायक होता है, मगर वोट करने से पहले वह गोरक्षपीठ की ओर देखता है। इसका प्रमाण कई चुनावों में सामने आ चुका है, जिनमें लहर किसी की थी, लेकिन चुनाव में चली गोरक्षपीठ की है। 
9 विधायक, मेयर सब भाजपा के
गोरखपुर जिले में कुल 9 विधानसभा क्षेत्र हैं। गोरखपुर सदर से यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ विधायक हैं। गोरखपुर ग्रामीण, सहजनवां, खजनी, चिल्लूपार, बांसगांव, कैंपियरगंज, चौरीचौरा, पिपराइच सभी सीटों पर भाजपा का कब्जा है। गोरखपुर जिले की दो संसदीय सीटों गोरखपुर सदर और बांसगांव में भी भाजपा के ही सांसद हैं। मेयर की सीट भी 1994 से भाजपा के पास है। केवल 2001 में किन्नर आशा देवी ने जीत दर्ज की थी, वह भी इसलिए क्योंकि गोरक्षपीठ ने चुनाव में रुचि नहीं ली थी। 
साफ हो गई कांग्रेस
1952 के पहले चुनाव से ही गोरखपुर सदर संसदीय सीट कांग्रेस के पास ही रही है। यहां के पहले सांसद ठाकुर सिंहासन सिंह रहे। बाद के दिनों में भी कांग्रेस के ही सांसद इस सीट से चुने जाते रहे, लेकिन कांग्रेस से यहां के अंतिम सांसद मदन पाण्डेय रहे और उसके बाद कांग्रेस का सफाया हो गया। 1990 के बाद जब क्षेत्रीय पार्टियों का उभार हुआ तो कांग्रेस इस सीट से बिल्कुल साफ हो गई। 1967 में गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ ने चुनावी समर में कदम रखा तो कांग्रेस हार गई। 
साल 1970 में उनके उत्तराधिकारी महंत अवेद्यनाथ ने चुनाव लड़ा तो वह भी जीत गए। बाद में उन्होंने राजनीति छोड़ दी और छुआछूत के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ दिया। जैसे ही वह राजनीति से हटे, कांग्रेस जीतने लगी। 1989 में विहिप अध्यक्ष अशोक सिंघल व आचार्य परमहंस ने महंत अवेद्यनाथ से चुनाव लड़ने का आग्रह किया। वीपी सिंह की लहर के बीच वह चुनाव मैदान में उतरे और जीतने के बाद पूरे देश को यह संदेश दे दिया कि गोरखपुर में गोरक्षपीठ की ही चलेगी। 
2018 में हो गया उलटफेर
यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद जब भाजपा की सरकार बनी तो गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया और उन्हें यह सीट छोड़नी पड़ी। 2018 में यहां उपचुनाव हुए। भाजपा ने उपेंद्र दत्त शुक्ल को प्रत्याशी बनाया तो सपा ने निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद पर दांव लगाया। यह दांव काम कर गया और वह चुनाव जीत गए। यह उलटफेर भाजपा के लिए अचंभित करने वाला था। 2019 के चुनाव में भाजपा के रवि किशन सांसद बन गए। 
2019 का चुनाव परिणाम
- रवि किशन, भाजपा 7.17 लाख
- रामभुआल निषाद, सपा 4.15 लाख
-मधुसूदन त्रिपाठी, कांग्रेस 22972

-Legend News

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